हेदर मेसन ‘द माइंडेड इंस्टीट्यूट’ नामक एक व्यावसायिक योग चिकित्सा प्रशिक्षण संस्था की संस्थापक और निदेशक हैं। उन्हें चार स्नातकोत्तर उपाधियाँ प्राप्त हैं। रूबी कार्मेन के साथ अपने इस साक्षात्कार में उन्होंने योग द्वारा मन, शरीर और आत्मा की ओर लौटने की सादगी और शक्ति के बारे में बातचीत की और यह भी बताया कि उनके खुद के योग अभ्यास ने किस तरह से उनकी ज़िंदगी को बदल दिया है।
प्र. - सुप्रभात, हेदर। हार्टफुलनेस पत्रिका को यह साक्षात्कार देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। योग और उसके द्वारा चिकित्सा के इस पथ पर आपको क्या प्रेरित करता है?
सबसे पहले इस अभ्यास के द्वारा हुए अनुभव। आप में परिवर्तन होता है तो जग में भी परिवर्तन होता है। दृष्टिकोण ही सब कुछ है। जब आप अपनी मानसिक क्रियाओं को, अपने तंत्रिका तंत्र को शांत करते हैं और साथ ही अपने भीतर एक जागृति पैदा करते हैं तब दुनिया बदलती है। आप ज़्यादा आसानी से और स्पष्टता से परिस्थितियों को देख पाते हैं। जब ऐसा होता है तब अभ्यास के लिए, अपने ‘स्व’ की अनुभूति के लिए स्वतः एक प्रेरणा मिलती है और प्रेम उत्पन्न होता है। यह सिर्फ़ अहंकार नहीं है। इससे फिर बाहरी दुनिया के लिए भी यही भावनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं।
मैं उन सभी सहकर्मियों, विद्यार्थियों और ग्राहकों से भी अत्यधिक प्रेरित हूँ जिन्होंने इन अभ्यासों द्वारा बड़ी-बड़ी मुश्किलों का सामना किया है। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण अभ्यास ही है।
हम दुनिया के जाल में बहुत आसानी से फँस जाते हैं। हम जीवन के उतार-चढ़ावों एवं जीवन में आने वाली छोटी-बड़ी समस्याओं को आसानी से बाहर से आई हुई मान लेते हैं और उनके बारे में चिंता भी करते हैं। इसलिए योग की आध्यात्मिक शिक्षाएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। भले ही हम उन्हें बौद्धिक रूप से जानते हों फिर भी उन्हें अंगीकृत कर उनसे पोषण पाना ज़रूरी है।
मैं बौद्ध मठों में लगभग तीन साल रही। जब आप दिन-रात उस दुनिया में डूबे रहते हैं तब ईश्वर की याद हर पल रहती है। पर जब आप उस वातावरण से बाहर निकलते हैं तब दूसरे लोगों के साथ रहने की एक सक्रिय प्रक्रिया का होना आवश्यक है जो नैतिक मूल्यों को याद करने, साहित्य या शायद आध्यात्मिक ग्रंथों को पढ़ने में मदद करता है ताकि आप उन बातों को अपने दैनिक जीवन में उतार सकें। आप अपना पथ खुद चुन सकते हैं। मैं किसी तरह के मतारोपण का सुझाव नहीं दे रही हूँ क्योंकि दुनिया में कई सारे प्रतिस्पर्धी तत्व हैं और हम ऐसी दुनिया में जीते हैं जहाँ सफलता को भौतिक लाभ और प्रतिष्ठा से नापा जाता है। बदकिस्मती से उनके पीछे दौड़ने से हमें खुशी नहीं मिलती।
यह बहुत ज़रूरी है कि हम बार-बार अपनी आंतरिक शक्ति के एहसास की तरफ़ लौटें ताकि हम देखें, महसूस करें, शरीर को खींचने का अभ्यास करें और साँस लें।
प्र. - जब बाहरी दुनिया में इतने सारे विकर्षण मौजूद हों तो यह ज़रूरी हो जाता है कि हम आंतरिकरण के बारे में सोचें।
आप योग चिकित्सा की विशेषज्ञ हैं और न्यूरोसाइंस (तंत्रिका विज्ञान) में भी रुचि रखती हैं। क्या आप हमें बता सकती हैं कि हम अपने प्राचीन इतिहास व यौगिक मनोविज्ञान से क्या सीख सकते हैं और ये हमें आज की समस्याओं से जूझने में कैसे मदद कर सकते हैं?
आजकल आघात को लेकर भी बहुत ज़्यादा चर्चा हो रही है। कई लोग अब खुलकर, ईमानदारी से अपने संघर्ष और सहारे की ज़रूरत के बारे में बात करने लगे हैं। आघात को समझने में योग कैसे मदद कर सकता है?
यहाँ पर आपने दो अलग प्रश्न उठाए हैं। यौगिक मनोविज्ञान में यह कहा जाता है कि हम सबका एक अविनाशी लेकिन अज्ञात सिद्ध स्वरूप है। चाहे हम पर जो कुछ भी बीते, आंतरिक स्वस्थता हमेशा मौजूद होती है। मेरे लिए यह एक अमूल्य विचार रहा है विशेष रूप से जब मैं भीतर तक आहत हो चुकी थी और ऐसा लगता था कि मैं उस मन:स्थिति से कभी भी उबर नहीं पाऊँगी। तब मुझे इसी विचार से ताकत मिली। अपनी आत्मा से जुड़े रहना, उस पूर्ण से जुड़े रहना जो कभी भी दूषित नहीं हो सकता, बहुत बड़ा सहारा है। साथ ही, अपने अभ्यास द्वारा हममें अपनी मानसिक योग्यता बढ़ाने की क्षमता भी होती है।
इसका यह मतलब नहीं है कि हम अपनी ज़िंदगी से दर्द या अपनी यादों को पूरी तरह से निकाल सकते हैं। मैं यह नहीं कहूँगी, “अगर तुम ऐसा करो तो ज़िंदगी आसान हो जाएगी।” हममें से बहुतों के साथ कुछ ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिनके घाव ज़िंदगीभर हमारे साथ बने रहेंगे। इसके बावजूद हम अप्राप्य स्वास्थ्य को पा सकते हैं। यह पीटीएसडी (पोस्ट-ट्रमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर - दर्दनाक घटना के बाद होने वाला एक मानसिक विकार) के क्षेत्र के लिए बहुत ज़रूरी है।
अब यहाँ हम तंत्रिका विज्ञान के विषय में बात करेंगे। यह माना जाता है कि पीटीएसडी हर किसी को एक जैसा तंत्रिकी संकेत देता है। यह संकेत हमारे मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र में एक जैसा दिखाई पड़ता है और इसी कारण से हम इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में पहचान पाते हैं जिसके लक्षण समान हैं। और जैसे-जैसे हम अभ्यासों के प्रभाव को जानने लगते हैं, हम उनका उपयोग ऐसे तरीकों से कर सकते हैं जो तंत्रिका तंत्र को नियमित करने में सहायक हों।
पीटीएसडी की एक मूल समस्या है स्वायत्त तंत्रिका तंत्र पर अनियंत्रण - खासकर तंत्रिका तंत्र के उस भाग पर जो हमारे ‘आराम और पाचन’ (परानुकंपी) अथवा ‘लड़ो या भागो’ (अनुकंपी) से संबंधित है। उदाहरणतः, प्राणायाम यानी यौगिक श्वसन अभ्यास साँस छोड़ने की प्रक्रिया को लंबा करते हैं और यह परानुकंपी सक्रियता को बढ़ाता है। इस तरह योग तंत्रिका तंत्र की नियमितता बढ़ाकर एक पल में ही या कुछ समय बाद मदद कर सकता है। कुछ ऐसा ही प्रभाव गतिशीलता का भी होता है।
योग के अन्य अंग जैसे ध्यान, यम, नियम आदि, जिनका संबंध मन से है, उन्हें सिद्ध करना कठिन हो सकता है क्योंकि हमारा मन ही हमारी बेचैनी का कारण होता है।
इस तरह योग तंत्रिका तंत्र की नियमितता बढ़ाकर एक पल में ही या कुछ समय
बाद मदद कर सकता है। कुछ ऐसा ही प्रभाव गतिशीलता का भी होता है।
प्र. - क्या आपकी यात्रा में ऐसा कोई खास क्षण था या कोई घटना क्रम था जब आपने महसूस किया कि योग आपकी ज़िंदगी में महत्वपूर्ण सिद्ध होगा?
मुझे लगता है कि वह घटना क्रम था। जब मैं भारत में योग चिकित्सा का प्रशिक्षण ले रही थी तब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मुझे इससे क्या प्राप्त होगा या आखिर इसका उद्देश्य क्या है? मैं एक आश्रम में थी और हमें दो हफ़्तों के बाद एक दिन के लिए बाहर जाने दिया गया। बाद में जब मैं आश्रम की ओर लौट रही थी तब जैसे सब कुछ समझ में आ गया। मुझे अब भी याद है कि उस वक्त मैंने कुछ दूरी पर एक पहाड़ और खूबसूरत हरियाली देखी थी। मेरी ज़िंदगी का बहुत समय मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित रहा। मैंने मनोचिकित्सा विषय में स्नातकोत्तर पदवी प्राप्त की और मनोविज्ञान विषय पर केंद्रित ‘बुद्धिस्ट स्टडीज़’ में डिग्री हासिल की। मैं स्वयं कई वर्षों तक अपने मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझती रही। मैं अपने मन को बदलने के लिए योग और बौद्ध धर्म का उपयोग कर रही थी। एकाएक मैंने सोचा, “मुझे मानसिक समस्याओं से जूझते लोगों की योग चिकित्सा द्वारा मदद करनी चाहिए।” और बस अकस्मात ही यह पाठ्यक्रम सामने आ गया। यह एक तरह से एक दिव्य प्रकटीकरण था और इंग्लैंड पहुँचकर मैं यह पाठ्यक्रम पढ़ाने लगी। यह एक ऐसा विषय है जिसे पढ़ाना लोग सीख सकते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से पीड़ित लोगों की मदद करने के लिए योग में बहुत क्षमता है। साथ ही, आप में मुश्किलों का सामना करने की इच्छा और निरंतरता होनी चाहिए क्योंकि कई बार बदलाव लाने के लिए आपको अपने भीतर उत्पन्न होने वाली कठिन स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। मेरे विचार में यह ज़रूरी है कि योगाभ्यास करने के लिए अपने भीतर हल्कापन विकसित करें, अपनी सुविधानुसार समय निकालें, कुछ समय तक यह अभ्यास अवश्य करें ताकि आपको पता चले कि रूपांतरण संभव है। मैं इस तथ्य का जीवंत उदाहरण हूँ। मेरी ज़िंदगी आसान नहीं थी, इसलिए मुझे पता है कि योग द्वारा क्या कुछ संभव है।
मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से पीड़ित लोगों की मदद करने के लिए योग में बहुत क्षमता है।
प्र. - आपने दो चीज़ों के बारे में बात की - पहली है बदलाव, रूपांतरण। कभी-कभी लोग अपने जीवन में अटका हुआ महसूस करते हैं और उस स्थिति को बदलने का तरीका नहीं जानते। योग और ध्यान यकीनन रूपांतरण के लिए उपयुक्त साधन हैं। दूसरी चीज़ जिसके बारे में आपने बात की वह थी निरंतरता। इसे हम अभ्यास कहते हैं। यह एक ही बार में प्राप्त होने वाला समाधान नहीं है। इस बात को समझना ज़रूरी है।
आपने स्थिति को बदलने की भी बात की। अगर आप किसी आघात और चुनौतियों का शिकार हुए हैं तो आप अपने योगाभ्यास द्वारा उनके एहसास को बदल सकते हैं। पिछले कुछ सालों में एक बात जो मेरे सामने उभरकर आई है, वह है ‘आध्यात्मिक उपेक्षा’ की अवधारणा यानी एक प्रकार से यह कहना, “मैंने यह छः हफ़्तों का पाठ्यक्रम पूरा कर लिया है और अब मैं ठीक हूँ।”जबकि मेरे अनुभव में और जैसा आपने भी बताया, यह एक निरंतर प्रक्रिया है।
और आध्यात्मिक अभ्यास अपने आप से बचने का एक तरीका भी है!
प्र. - दरअसल, बहुत लोगों को यह गलतफ़हमी है कि ध्यान बचने का ज़रिया है जबकि वास्तव में ध्यान की सहायता से हम खुद का सामना करते हैं, जैसे कि अपने आप को आईने में देख रहे हों।
हाँ, वास्तव में ध्यान चीज़ें प्रकट करता है।
प्र. - क्या आप युवाओं को कुछ बताना चाहेंगी?
मैं कहूँगी कि अभ्यास जल्दी शुरू करें! यह समझ लें कि अगर तुम संघर्ष कर रहे हो तो बाकी भी संघर्ष कर रहे हैं, चाहे उन्हें देखकर तुम्हें ऐसा न लगे। दूसरों के संघर्षों के प्रति संवेदना रखें। कितना भी मुश्किल हो अपने साथियों के साथ जुड़ें। परिपक्व होने की प्रक्रिया भी एक संघर्ष है और इसमें आप अकेले नहीं हैं। अगर आप कम उम्र में ही अभ्यास शुरू कर देते हैं तो ये साधन इन संघर्षों का सामना करने में आपकी मदद करेंगे और साथ ही आपके मस्तिष्क के विकास पर भी अच्छा प्रभाव डालेंगे। आप जीवन भर के लिए कुछ अलग तंत्रिका संबंधी दशाएँ स्थापित कर सकेंगे जो आपके जीवन को थोड़ा सरल बना देंगी। 23 या 25 वर्ष की उम्र तक आपके मस्तिष्क का पूर्ण विकास नहीं होता है।
आप में मुश्किलों का सामना करने की इच्छा और निरंतरता होनी चाहिए क्योंकि कई बार बदलाव
लाने के लिए आपको अपने भीतर उत्पन्न होने वाली कठिन स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है।
मुझे सच में लगता है कि काश, मैंने कम उम्र से ही योगाभ्यास शुरू किया होता। मैं एक जिमनास्ट थी और स्पर्धा में विश्वास भी रखती थी। अतः मैं अपने शरीर को अलग-अलग आकार में मोड़ पाती थी। परंतु यह सब कुछ बस प्रदर्शन के लिए था, अंगीकार करने के लिए नहीं। काश किसी ने उस वक्त मुझे योगाभ्यास के बारे में बताया होता। मेरी ज़िंदगी बहुत अलग होती।
प्र. - नब्बे के दशक में मैंने मनोविज्ञान पढ़ा था और उस वक्त यह माना जाता था कि यौवनावस्था प्राप्त करने के बाद मस्तिष्क की न्यूरोप्लास्टीसिटी (तंत्रिकाओं की परिस्थिति के अनुसार बदलने की क्षमता) खत्म हो जाती है। इस विषय पर हुए नए शोध से पता चला है कि न्यूरोप्लास्टीसिटी यौवनावस्था के बाद भी जारी रहती है और योग व ध्यान इसमें सहयोग करते हैं।
यह ज़िंदगी की अंतिम अवस्था तक चलता रहता है। डिमेंशिया (मनोभ्रम) की अवस्था में भी तंत्रिका विकास होता है। उसमें जब मस्तिष्क के कुछ भाग क्षीण होने लगते हैं तो उसे अभ्यास द्वारा रोका जा सकता है। जीवन की हर अवस्था में न्यूरोप्लास्टीसिटी और तंत्रिकाजनन की संभावना रहती है।
वास्तव में ध्यान चीज़ें प्रकट करता है।
प्र. - योग के बारे में बहुत सी रूढ़िवादी धारणाएँ प्रचलित हैं। योग और ध्यान के बारे में मिथकों को दूर करने में बहुत समय बर्बाद होता है। इस विषय में क्या आप कुछ उदाहरण दे सकती हैं?
उदाहरण के तौर पर योग के शिक्षकों का यह मानना है कि हम बाएँ नासिका छिद्र से श्वास लेते हैं तो मस्तिष्क का बायाँ भाग सक्रिय होता है और दाएँ नासिका छिद्र से श्वास लेने से मस्तिष्क का दायाँ भाग सक्रिय होता है। यह सच नहीं है। नाड़ी शोधन (अनुलोम विलोम) प्राणायाम करने से हमारा तंत्रिका तंत्र संतुलित रहता है। हम बाएँ नासिका छिद्र से सीधे बाएँ मस्तिष्क में श्वास नहीं लेते हैं। सिवाय उन संवेदी पथों के जो सूंघने से सीधे संबंधित हैं और सीधे मस्तिष्क में जाते हैं, हमारे नाक के बाकी सारे संवेदी पथ सीधा ब्रेन स्टेम यानी मस्तिष्क स्तंभ तक जाते हैं।
प्र. - बहुत बढ़िया। बहुत-बहुत धन्यवाद, हेदर। क्या आप कुछ और कहना चाहेंगी?
उत्तर - योग सभी के लिए है।
कलाकृति - जास्मी मुद्गल
हेदर मेसन
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