श्रीराम राघवेंद्रन बचपन की एक घटना याद करते हैं जिससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि हम दर्द और पीड़ा को कैसे महसूस करते हैं और अपने सामर्थ्य को कैसे उजागर कर सकते हैं।
बचपन में एक गतिविधि जो मुझे पसंद थी, वह थी सड़क पर अपने दोस्तों के साथ खेलना। इसमें आमतौर पर पूरी शाम ही बीत जाती थी और मैं शाम ढलने के बाद ही घर लौटता था। हमने क्या गतिविधियाँ कीं, यह मायने नहीं रखता था। हमने साथ मिलकर उन्हें किया, यह मायने रखता था।
मैं लगभग बारह वर्ष का था जब ऐसी ही एक शाम को अपने दोस्तों के साथ खेलते हुए गिर पड़ा। मैं तुरंत उठा, अपने कपड़ों से धूल झाड़ी और इधर-उधर दौड़ता रहा। जब मैं दो घंटे बाद घर लौटा तब मेरी माँ ने मेरी टाँगों पर नज़र गड़ाकर देखा और पूछा, “क्या हुआ?” मैंने नीचे देखा तो पाया कि मेरा घुटना बुरी तरह से छिल गया था, घाव से खून बहकर मेरे पैरों तक पहुँच गया था और सूख भी गया था।
मुझे याद है कि मैं तब अपनी टाँग पकड़कर रो पड़ा क्योंकि मुझे अपने घुटनों में तेज़ दर्द महसूस होने लगा। जैसे ही मैंने उस चोट की ओर ध्यान दिया, ऐसा लगा कि घाव फिर से हरा हो गया। दिन बीत गया और मैं इस घटना के बारे में सब कुछ भूल गया। अभी कुछ वर्ष पहले यह घटना फिर से स्मृति में कहीं से उभर आई।
जब मैंने इस छोटी, महत्वहीन घटना पर विचार किया तो कई प्रश्न मेरे मन में उठने लगे -
घुटने में खरोंच लगने के बाद खेलते समय मुझे दर्द का अनुभव क्यों नहीं हुआ?
जैसे ही मुझे एहसास हुआ कि मेरा घुटना छिल गया है तो मुझे तेज़ दर्द क्यों महसूस हुआ?
क्या बिना कष्ट के भी दर्द हो सकता है? क्या दर्द के बिना भी कष्ट हो सकता है?
इस विचार के कारण मुझे दर्द और पीड़ा के बीच का अंतर समझ आ गया। दर्द वह है जो चोट लगने से होता है, लेकिन कष्ट वह है जिसे हम सचेत रूप से अनुभव करते हैं। उस शाम जब मेरा घुटना छिला था तब दर्द तो उसी पल से रहा होगा लेकिन कोई कष्ट नहीं हुआ क्योंकि मैं दर्द के प्रति सचेत नहीं था। यह दर्द की चेतना ही है जिसके कारण हमें कष्ट होता है।
शारीरिक दर्द, कठिनाइयाँ, रिश्ते, संघर्ष - जीवन में ऐसी बहुत सारी चीज़ें हैं जो हमें परेशान करती हैं। इन चीज़ों से होने वाले दर्द से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। हमें दर्द पैदा करने वाले कारण पर ध्यान देने की ज़रूरत है। लेकिन ऐसा लगता है कि हम या तो बहुत अधिक ध्यान दे सकते हैं या बहुत कम।
बहुत कम ध्यान देने से समस्या के समाधान में देरी होती है जिससे दर्द देर तक रहता है। इसके विपरीत, जितना अधिक हम किसी समस्या के बारे में सोचते रहते हैं और उसे अपने मन में बैठा लेते हैं, वह उतनी ही बड़ी लगने लगती है और पीड़ा को बढ़ा देती है। मैं कभी-कभी किसी समस्या को इतना बड़ा बना देता हूँ कि मुझमें कोई काम करने की ऊर्जा ही नहीं बचती। समस्या पर अपने ध्यान को संयमित करने और निर्णायक कार्यवाही शुरू करने से समस्या जल्दी हल हो जाती है।
जहाँ ध्यान जाता है वहीं ऊर्जा प्रवाहित होती है! अपने ध्यान और मनोभाव द्वारा हम एक तिल का पहाड़ या एक पहाड़ का तिल बना सकते हैं।
जब किसी ने बाबूजी (हार्टफुलनेस के मार्गदर्शक) से उनके पेट दर्द के बारे में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया, “अब जब आपने मुझे मेरे पेट दर्द की याद दिला दी है तो मैं इस दर्द को महसूस कर सकता हूँ!” उन चीज़ों पर ध्यान केंद्रित करना मदद करता है जो हमें प्रेरित करती हैं, हमें ऊँचा उठाती हैं और प्रोत्साहित करती हैं ताकि हम उन चीज़ों पर काम करें जो ठोस परिणाम देती हैं और उन चीज़ों पर ध्यान को नियंत्रित करें जो हमें परेशान करती हैं।
मेरी पसंदीदा उक्तियों में से एक है, “हमेशा प्रकाश की ओर देखो। क्योंकि जब हम प्रकाश से विपरीत मुड़ जाते हैं तब हमें अपनी ही परछाई दिखाई देती है।”
हम जिस तरीके से अपने आप को मानसिक और भावनात्मक स्तर पर संभालते हैं, वही हमारे कष्टों को कम करने और हमारी क्षमता को उजागर करने की कुंजी है। हम जिस अनुभव से गुज़र रहे हैं उसे समझने के लिए बढ़ी हुई जागरूकता, ध्यान को पुनर्निर्देशित करने के लिए मन की दक्षता और सोचते रहने के बजाय कार्यवाही करने की एक विकसित इच्छाशक्ति - ये सभी हमें उपयोगी, प्रभावी और प्रसन्न बनाते हैं। हार्टफुलनेस का नियमानुसार निरंतर अभ्यास करने से हम ऐसे ही कुछ गुण विकसित करते हैं।
श्रीराम राघवेंद्रन
श्रीराम एक हार्टफुलनेस अभ्यासी और प्रशिक्षक हैं जो तकनीकी क्षेत्र में कार्यरत हैं। जीवन के सिद्धांतों में गहरी अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए अपने छोटे-छोटे दैनिक अनुभवों पर चिंतन ... और पढ़ें